बुधवार, 3 अक्तूबर 2007

पूनम, अश्विन और मैं


मराठी भाषी होने के साथ हिंदी से भी लगाव रहा। वेब पर खाली समय बीतने लगा। दोस्त मिले, साथ वेब पर उपलब्ध भंडार से काफ़ी कुछ सिखना हुआ। आगे बढ़ते रहने की कोशिश जारी है, आज यह ब्लाग बनाने का ख़याल आया। ब्लाग की शुरुआत पुरानी यादों के साथ करना चाहूँगी जब अभिव्यक्ति और अनुभूति का विचार पूर्णिमा वर्मन के मन में आया था। सबकी मेहनत रंग लाई - आज मैं, अश्विन गांधी और पूर्णिमा मिलकर 'अभि-अनु' को आगे लिए जा रहे हैं। इन दो करीबी दोस्तों से काफ़ी कुछ सीखा है मैंने। इन अच्छे दोस्तों के लिए कुछ पंक्तियाँ लिखी थी वो आपके सामने रखना चाहती हूँ।

प्यास थी एक बूँद की
सागर मैंने है पाया

चाह थी एक फूल की
गुलशन मैंने है पाया

आस थी अच्छे दोस्तों की
पूनम अश्विन को मैंने है पाया।

आज के लिए बस इतनाही ---

दोहे - क्या समझाए ये गुलमोहर

भर गरमी में भी गुलमोहर के रंगों ने समा बाँध रखा है। चलते-फिरते ये गहरे लाल फूल हवा के झोंके के साथ होले से शायद कुछ गुनगुना गए। वही गुनगुनाहट -कुछ दोहे

उन्हीं गुलमोहर के फूलों के नाम


निखरा रंग हर फूल का आँगन की है शान
दिलकश खिलता गुलिस्तां रखता सबका मान

झुकी झुकी है डालियाँ लुकीछिपी है छाँव
गुलमोहर बुलाए तले थके पथिक के पाँव

कानों में गुनगुन करे बतियाती है डाल
दोपहरी जल जल मरे हँसे गुलमोहर लाल

गुलमोहर रंगने लगा दोपहरी सुनसान
धीमा झोंका हवा का एक सुरीली तान

सिंदूरी कालीन पर गुलमोहर शालीन
तन का हिंडोला डुले मन काहे गमगीन

ना रूठ यों गुलमोहर नहीं बिखर हवा संग
शृंगार हो मौसम का ओढ़ा दो लाल रंग

गरम थपेडे बह रहे गुलमोहर मुस्काए
हर मौसम में खुश रहो यही समझाए

दीपिका
जोशी 'संध्या'

आँसू

आँसुओं, तुम क्या हो?

अधखुली-सी
सीपियां पलकों में
मोती जैसे चमकते तुम

खुशियों में
गालों पर रिसते
ग़म में नहीं सँभलते तुम

सिमटे हो
एक बूँद में कभी
कभी सागर बन जाते तुम

काव्य में
किसी की हो प्रेरणा
सुर संगीत बन जाते तुम

आँसुओं!
ऐसे न बिखरो
बेशक बहुत अनमोल तुम

दीपिका जोशी 'संध्या'

खुद को बदलें

एक दिन रोज़ का समाचार-पत्र पढ़ते-पढ़ते एक छोटे से लेख पर नज़र गई, और बात दिल को ऐसे छू गई, आप सबके साथ बाँटना चाहती हूँ।

वेस्टमिनिस्टर
अबे बिशप के क़ब्र पर संदेश लिखा हुआ था- ''मेरी जवानी में मुझे कोई ऐसी ज़्यादा ज़िम्मेदारियाँ नहीं थीं। मेरी कल्पनाशक्ति को कोई सीमाएँ नहीं थीं। उस समय मैं पूरे जग को बदलने के ख़्वाब देखता था। उमर बढ़ती गई, अनेकों अनुभवों से मैं रोज़ हर मोड़ पर कुछ न कुछ सीखता और होशियार होता चला गया। मुझे यह बात समझ में आ गई कि पूरे जग को बदलना संभव नहीं। इसलिए मैंने मेरे बस में अपने देश में कुछ बदलाव लाने की ठानी। थोड़े ही दिनों में यह भी आसान नहीं लगा।
उम्र की साँझ होने को थी, क्यों न एक कोशिश अपने परिवार में ही हो जाए, पर ओह!! ये क्या, यहाँ भी कितनी ढ़ेरों दिक्कतें इस आसान से लगने वाले काम में। आज मैं मृत्युशैय्यापर हूँ और अचानक साक्षात्कार हुआ कि सबसे पहला बदलाव मैं खुद में ला सकता था। हो सकता है कि मेरा ही आदर्श सब मेरे अपनों में कुछ अच्छे बदलाव ला सकता था। ऐसा ही मैं आगे बढ़ता और क्या पता अपने देश के साथ पूरे जग की कायापलट कर भी देता। ख़ैर. . .''