मंगलवार, 11 दिसंबर 2007

कुछ दिल की बात!!

मित्रों....

जीवन में आपाधापी या उठापटक न हों तो जीवन कैसा! कुछ ऐसे मौके आते हैं जिन पर हम बार-बार ग़ौर करते हैं, उसी को सोचते हैं। ऐसी कुछ बातें किसी के साथ बाँटने को दिल भी करता है। ऐसी ही है यह मेरे दिल की बात। दोहरी खुशी के वे पल आज भी मेरे जीवन में बड़े मायने रखते हैं। शायद पढ़कर आपको भी मज़ा आएगा यह सोच कर आपके सामने प्रस्तुत कर रही हूँ।

२८ साल पुराना यह वाक्या है। जब पता चला कि मैं माँ बनने वाली हूँ तब मैं २१ साल की थी। आज जब सोचती हूँ तब ऐसा लगता है कि शर्म के मारे होगा लेकिन यह खुशी मैं ज़ाहिर ही नहीं कर पाई थी। पाँचवे महीने में ही डॉ. ने जुड़वा होने का शक ज़ाहिर किया था। शक के घेरे में और हाँ या ना की दुविधा में और दो महीने निकल गए। २८ साल पहले सोनोग्राफ़ी नहीं थी सो आठवे महीने में एक्स रे के बाद जुड़वा होने का शक यकीन में बदल गया। एक साथ दो-दो आएँगे इसका मुझपर क्या असर हुआ था याद नहीं लेकिन हमेशा से कुछ हट कर होनेवाला है यह बात ज़रूर समझ में आई थी। कहने के लिए वंशानुगत होनेवाला यह जुड़वा का किस्सा परिवार में किसी की जुबान से आजतक सुना नहीं था। इसकी मुझे बड़ी खुशी है कि यह परंपरा मेरे परिवार में मैंने शुरू की है। पूरे दिनों बाद मुझे दो तंदुरूस्त प्यारे बेटे हुए। दोनों में ९ मिनट का अंतर हैं। अस्पताल में जुड़वा बच्चों को देखने के लिए मेरे कमरे में भीड़ लगी रहती थी। लड़की में ज़्यादा दिलचस्पी रखनेवाली मैं मन में थोड़ी उदास-सी हो गई। दो में एक बेटी होती तो सोने पे सुहागा होता यह बात २८ साल बाद आज भी मेरे मन में आए बिना नहीं रहती। बेटा हो या बेटी माँ बनना हम औरतों के जीवन में एक सुखद अहसास है। लेकिन यही अहसास ९ मिनिट में दो बार अनुभव करना कितना सुखद होता है यह मेरे जैसी जुड़वाँ बच्चों की माँ ही समझ सकती है।


मैंने उनके नाम रुचिर और शिशिर रखे हैं। जब मैं छोटी थी तब से मुझे छोटे बच्चों से लगाव था। हमेशा आस-पड़ोस के बच्चों के साथ खेलती हुई नज़र आती थी। इसलिए जब मेरा माँ बनने का समय आया तब भगवान ने भी मेरा छोटे बच्चों का शौक ज़रा ज़्यादा ही पूरा कर दिया। मैंने भी बड़ी खुशी से यह बात स्वीकार कर ली थी।

जुड़वा होने केबावजूद शुरू में वे शकल से काफ़ी अलग लगते थे। दोनों ने कभी भी किसी भी बात में दुखी नहीं किया इसलिए शायद सँभालने में दिक्कत नहीं आई। ७ या ८ महिने बाद काफ़ी एक जैसे लगने लगे थे। आमने-सामने दोनों को रखा तो अपने सामने अपने जैसे को देख कर ही शायद मुस्कुराए थे। सेहत और लंबाई में कोई फ़रक नहीं था। एक जैसे कपड़े पहनाती तो देखनेवालों का कौतूहल बढ़ जाता था।


एक मज़ेदार किस्सा बताती हूँ, जब दोनों ३-४ साल के थे, मुझे सभी पूछते थे, 'इनमें बड़ा कौन है?' ऐसे ही एक बार मुझे सवाल पूछे जाने पर मैंने जवाब में कह दिया, 'रुचिर बड़ा है।' वहाँ बैठा शिशिर सब सुन रहा था। उसे यह बात जची नहीं। तुरंत वह बोल पड़ा, 'नहीं, हम जुड़वाँ भाई हैं सो हम तो बराबर के हैं।' उस समय तो जुड़वा का मतलब समझते ही नहीं थे। हमसे सिर्फ़ सुनी हुई बातें थी। लेकिन उसके बाद ऐसा कहने की गलती मैंने दुबारा नहीं की। जब स्कूल जाने लगे तब उनके दोस्तों को और शिक्षकों को उन्हें पहचान पाना मुश्किल लगता था। पर शायद ही कभी उन्होंने इसका फ़ायदा उठाया हो। जब कभी उनकी तरफ़ देखकर कोई कहता 'लगता हैं जुड़वाँ हैं' तो दोनों ही इस बात का मज़ा लेते थे।
जब तीसरी कक्षा में पढ़ते थे तब की बात है। उनके स्कूल में रोज के ताज़े समाचार सुबह की प्रार्थना के समय कोई एक विद्यार्थी सुनाता था। एक दिन रुचिर की बारी थी, उसने सुनाए। दो दिन बाद शिशिर को कहा गया। जब वह मंच पर पहुँचा, उनके प्रिन्सिपल ने कहा, "दो दिन पहले तुमने सुनाए थे, आज किसी और को सुनाने दो।" यह बात सुन कर कोई भी हँसे बिना नहीं रह सका। तब इन जुड़वाँ भाइयों के बारे में प्रिन्सिपल को बताया गया। उन्होंने दोनों को मंच पर बुलाया। सबने तालियाँ बजाकर उसका मज़ा लिया। उस समय उन्हें कैसा महसूस हुआ था यह पूछने पर भी वह बता पाने मे शायद असमर्थ हैं।


पढ़ाई में वैसे दोनों अच्छे हैं लेकिन 'एक समान नंबर कैसे मिलेंगे!' ऐसे नाजुक मामले में मुझे बहुत सँभल कर चलना पड़ता था। दोनों का दिल रखने के लिए मुझे नये-नये तरीके अपनाने पड़ते। जुड़वा बच्चों की मानसिकता कैसी होती है यह जानने के लिए मैंने किताबें पढ़ीं थीं। उन्हीं के सहारे दोनों का मन सँभालने की कोशिश करती थी।
जैसे थोड़े बड़े हुए 'यह तेरा' 'यह मेरा' की बातें आ गई। एक दूसरे की चींज़े इस्तेमाल करना नामंजूर होने लगा था। घर में लड़ते लेकिन घर के बाहर एक दूसरे के प्रति भाई होने का फ़र्ज़ खूब अदा करते। यह देखकर मेरे दिल को बड़ा सुकून मिलता था। एक दूसरे के वे अच्छे दोस्त हैं ही लेकिन उसके भी परे उन दोनों के बीच में ऐसा भी कुछ बंधन होगा जो शायद जुड़वां ही महसूस करते होंगे। कहते हैं जुडवा बच्चों को अलग नहीं रखना चाहिए यह बात सच ही है।


हमने शुरू से ही उन्हें स्पर्धात्मक परिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया है। पाँचवी क्लास में थे तब महाराष्ट्र में होनेवाली सैनिक स्कूल की प्रवेश परीक्षा दी थी। ज़रा कठिन होती है लेकिन मैंने हौसला अफ़ज़ायी भी खूब की थी। मेहनत करने से कभी नहीं हारने वाले दोनों ने बड़ी लगन से पढ़ाई की। पहले दस में पास हुए थे। बाद में साक्षात्कार के लिए सातारा जाना था। नौ साल की उम्र में सैनिक अफ़सरों के सामने जाना आसान नहीं था। लेकिन बड़े हौसले के साथ इस जोड़ी ने वह भी कर दिखाया। वैसे ही उनके शब्दकोष में डर शब्द कहीं नहीं है, अब और भी हिम्मत बढ़ गई थी।


दोनों आठवी कक्षा में थे तब उनके पापा नौकरी के बहाने विदेश चले गए। अब इन जवान हो रहे बच्चों की ज़्यादा ज़िम्मेदारी मुझ पर आ गई। लेकिन जैसे उलटा ही हो गया, उन दोनों ने मेरी ज़िम्मेदारी सँभाल ली हो। खुद को काफ़ी समझदार बना लिया था। तेरह चौदह साल की उम्र में ही उनका बचपन खो सा गया, इस बात का मुझे हमेशा अफ़सोस रहेगा। अब मैं ही उनकी दोस्त बन गई थी। हर पहलू पर हमारी बातचीत होती थी।
कितना भी छोटा-सा काम हो लेकिन करेंगे दोनों साथ में। तीन पहिए और दो पहियों वाली साइकिलें अलग ली थीं। लेकिन तब भी लड़ते थे। पर एक ही स्कूटर खुशी-खुशी बाँट लिया। स्कूटर चलाना दोनों को पसंद लेकिन समझदारी दिखाकर बारी-बारी से चलाते। दो पहियों वाली साइकिल मैंने उन्हे उनके पीछे दौड़-दौड़ कर सिखाई थी। उन्हीं बेटों ने पीछे बैठ कर मुझे स्कूटर चलाना सिखाया। उस समय मैंने महसूस किया अब दोनों सच में बड़े हो गए हैं।


दसवी और बारहवी में बड़ी मेहनत से अव्वल आए थे। दोनों ने पुणे से कंप्यूटर इंजीनियरिंग की पदवी हासिल की। हम पति-पत्नी कुवेत में हैं और वे आगे की उच्च शिक्षा लेने अमेरिका गए जहाँ पढ़ाई पूरी हो जाने के पश्चात अब नौकरी में व्यस्त हैं। सभी परिवारजनों से दूर होने की वजह से वे दोनों ज़्यादा ही एक दूसरे के करीब आ गए हैं और सच्चे दोस्त बनें हैं।


बाकी जुड़वा बच्चों के मम्मी पापा का क्या अनुभव होगा मुझे पता नहीं। लेकिन हमारें बेटों ने हमेशा हमारा सम्मान बढ़ाया ही है। इसलिए अभिमान से कहना चाहती हूँ, जब बेटे हों, जुड़वाँ हों और हमारे बेटों जैसे हों। मेरी पिछले जनम की कोई पुण्याई तो नहीं जो ऐसे गुणी हमेशा खुश और समाधानी रहनेवाले बच्चों की माँ बनी। मैं मेरे बेटों के साथ हमेशा सख्त थी। उस सख्ती का असर आज अच्छा ही है ऐसी मेरी समझ है। उस सख्ती की उनके मन में कड़वाहट है क्या यह जानने की कोशिश मैंने की है लेकिन मैं अभी भी उलझन में हूँ।


जब वे पैदा हुए तबसे जुड़वा बच्चों को सँभालने की तकलीफ़ें थोड़ी-सी थीं लेकिन दोनों को एक साथ बढ़ते देखने की खुशी जो मुझे आज तक मिल रही है उसका जवाब नहीं।


दीपिका जोशी 'संध्या'