शनिवार, 12 जनवरी 2008

इच्छामृत्यु एक वरदान

अब हो जाए कुछ गंभीर बातें....

सुलभ मृत्यु की इच्छा हर इंसान को होती है, लेकिन किसकी पूरी हो कहा नहीं जा सकता। समाज में कई तरह के लोग हैं- गरीब भी और अमीर भी। सारी उम्र तकलीफ़ें सहने वाले, जी जान से मेहनत करके ज़िंदगी मुश्किल से जीने वाले भी और जीवन में सुख सुविधाओं के साथ जीते हुए किसी भी दुख की झलक न पाने वाले भी। हर एक की ज़िंदगी आखिर एक ज़िंदगी है।

सभी लोग आसान मृत्यु की कामना रखते हैं। अब ज़िंदगी है तो उसका अंत भी निश्चित है। कितने ही लोगों को ऐसी ज़िंदगी जीते देखा जा सकता है जिन्हें देख कर ना चाहते हुए भी मुँह से निकल जाता है कि भगवान इसे उठा क्यों नहीं लेता। कई लोग ऐसे हैं जो इस प्रकार की यातनाओं से भरी ज़िंदगी जी रहे हैं और मौत के करीब पहुँचे हुए भी मौत नहीं पा सकते हैं। ऐसे लोगों के लिए इच्छामृत्यु वरदान सिद्ध हो सकती है। फादर लुई वेदरहेड ने कहा था, 'यह दुख की बात है कि असाध्य रोगों से पीड़ित या जिनके सारी इंद्रिय काम करने में सक्षम नहीं है और शरीर भी ठीक नहीं है ऐसे व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध कृत्रिम मशीनों पर जीवित रखने का प्रयास करनें वालों को ईश्वर शिक्षा नहीं देता।' लेकिन चिकित्सक जान बचाने की शपथ लेते है तो वे जान ले कैसे सकते हैं।

यह सब देखते हुए दुनिया में इच्छामृत्यु का कानून आना कितना ज़रूरी है इस पर सोच विचार चल रहा है। हर व्यक्ति को अपने निर्णय स्वयं लेने का हक है तो फिर यदि कोई व्यक्ति लिख कर देता है- "यदि डाक्टरों के कथनानुसार मैं शारीरिक यातनाओं से मुक्ति नहीं पा सकता तो ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण अवस्था में कृत्रिम उपचारों पर परावलंबी और लाचारी का जीवन जीने की बजाय मुझे इच्छामृत्यु द्वारा इन सबसे मुक्ति दीजिए।" तो ऐसे इच्छामृत्यु के पत्र को सम्मानित करना चाहिए। इच्छामृत्यु एक वरदान साबित हो सकता है ऐसा कहने से क्या होता है? इसे कहीं भी कानूनी मान्यता नहीं मिल पाई है। इच्छामृत्यु या दयामृत्यु सारी दुनिया में चर्चा या विवाद का विषय बनी हुई है। इसके पक्ष और विपक्ष में बहस जारी है।

बीमारी की हालत में रोगी को कम से कम कष्ट मिले इसके लिए हर डाक्टर प्रयत्नशील होता है। ऐसे ही ऑस्ट्रेलिया के एक डॉक्टर फिलिप हैं। उनका मानना है कि उपलब्ध डॉक्टरी उपायों से यदि रोगी की यातनाएँ ख़त्म नहीं होती और मृत्यु ही अंतिम उपाय हो तो तकलीफ़ें झेलने से बेहतर है उसे सुखद मृत्यु दे दी जाए। उनकी लड़ाई जारी है। अनेक लोग इसका विरोध भी करते नज़र आते हैं। लेकिन वह अपने विश्वास पर अटल हैं। दयामृत्यु या इच्छामृत्यु के वे इतने कट्टर प्रवर्तक हैं कि ऑस्ट्रेलिया में उन्हें 'डॉ डेथ' के नामसे जाना जाने लगा है। जिनके इलाज में मृत्यु ही आख़री इलाज है ऐसे मरीज़ों को तुरंत मृत्यु आए इसलिए उन्होंने ख़ास डेथ मशीन बनाई है। कानून नहीं तोड़ सकते लेकिन उससे बचने का उपाय वे खोज रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय समुंदर में जहाज़ पर इच्छामृत्यु देने और ऑस्ट्रेलियन कानून को वहाँ निकम्मा बना सकने का उनका प्रयास जारी है। उन्हे पक्का विश्वास है कि उन्हें यश ज़रूर मिलेगा। उनका दावा यह भी है की आज तक २०० से अधिक लोगों ने इच्छामृत्यु का वरदान उनसे माँगा है।

पीड़ा सहन करनेवाले जब इच्छामृत्यु का प्रस्ताव सामने रखते हैं तो सामने वाला भी सोचने पर मजबूर हो जाता है। सब यदि इस विषय पर सोचना शुरू कर दें तो हल कभी न कभी ज़रूर निकलेगा। प्रजातंत्र में जब सत्ता पक्ष ऐसे सामाजिक क्रांति करनेवाले कानून लाने की बात सोचता है तो विरोधी पक्ष उसका साथ नहीं देता। भारत जैसे रूढिप्रिय देश में ऐसे कानून लागू करना असंभव-सा लगता है। यदि यह कानून संभव नहीं हुआ तो ऐसे समय जब यातनाओं से रोगी मुक्ति पाना चाहता हो कृत्रिम उपचारों की तकलीफ़ नकारने का हक तो उसे है ही। इसमें यदि परिवार का सहयोग मिले तो ही यह मुक्ति उसे मिल सकती है। लेकिन ऐसे संबंधी कहाँ मिलेंगे जो इच्छामृत्यु के लिए मंजूरी देंगे? इच्छामृत्यु के बारे में दूसरी तरह से भी सोचा जा सकता है। यदि डॉक्टर को कोई उम्मीद की किरण नज़र नही आती तो ऐसी मौत का सामना करने के लिए डॉक्टर भी उसका साथ दे सकते हैं। रोगी इतने असह्य दर्द में होता है कि वह तो आसानी से मौत को गले लगा सकता है। आसान मौत दिलाने में रोगी का साथ देना उसकी जान लेना नहीं माना जा सकता। इससे यह भी नहीं सोचा जाना चाहिए कि डॉक्टर ने अपना सेवाधर्म या ईमान छोड़ दिया है।

ऐसे भी कई लोग हैं जो जन्मजात रोगी हैं, शारीरिक और मानसिक दृष्टि से लाचार है। हालाँकि समाज और परिवार वाले ऐसा सोचते नहीं लेकिन वे एक तरह से परिवार पर भी बोझ बने हैं। ऐसे लोगों को इस बोझ का अहसास तक नहीं है। उनके लिए डॉक्टर या परिवार के सदस्य उनकी इच्छामृत्यु का निर्णय कर सकते हैं। नीदरलैंड में ऐसी इच्छामृत्यु की शुरुआत हुई है। इसके साथ ही जब नया पैदा हुआ बच्चा ख़ामियों से भरा हो, और आगे का जीवन उसके लिए भयावह हो तो भी उसे मौत दे दी जाती है। इसमें सबका सहयोग मिलता है जो बड़ा ही आवश्यक है।

डॉ। केव्होरकीयन ने खुद अमेरिका में ८० से उपर ऐसे लोगों को मौत दिलाने में सहायता की है जो जीवन से ऊब चुके थे। उन्हे सबका सहयोग प्राप्त हुआ है। तत्काल मृत्यु की तरकीबों को वे ज़्यादा सहायक मानते हैं जिससे इच्छामृत्यु में ज़्यादा तकलीफ़ ना हो।कई मरीज़ ऐसे भी हैं जो अपनी इच्छाशक्ति और आत्मशक्ति के बलबूते पर दुख झेलने का हौसला जुटा लेते हैं। लेकिन अधिकतर लोग बीमारी का नाम सुनते ही शुरू से हार मान लेते हैं। ऐसे उम्मीद खोए हुए लोगों को अंत में यह प्यार भरी मौत ही पार लगा सकती है।

यह बात तो उतनी ही सच है कि ऐसी मौत किसी को बहाल करना आसान बात नहीं हैं। लेकिन रोगी की बार-बार इच्छामृत्यु की माँग, डॉक्टर की सहमति और परिवारजनों का सहयोग काफ़ी हद तक इच्छामृत्यु की बात को सफलता दिला सकता है। देखना यह है कि क्या इसे कभी कानूनी मान्यता प्राप्त हो सकेगी और यह व्यवहार में आ पाएगी?


दीपिका 'संध्या'