बुधवार, 3 अक्तूबर 2007

दोहे - क्या समझाए ये गुलमोहर

भर गरमी में भी गुलमोहर के रंगों ने समा बाँध रखा है। चलते-फिरते ये गहरे लाल फूल हवा के झोंके के साथ होले से शायद कुछ गुनगुना गए। वही गुनगुनाहट -कुछ दोहे

उन्हीं गुलमोहर के फूलों के नाम


निखरा रंग हर फूल का आँगन की है शान
दिलकश खिलता गुलिस्तां रखता सबका मान

झुकी झुकी है डालियाँ लुकीछिपी है छाँव
गुलमोहर बुलाए तले थके पथिक के पाँव

कानों में गुनगुन करे बतियाती है डाल
दोपहरी जल जल मरे हँसे गुलमोहर लाल

गुलमोहर रंगने लगा दोपहरी सुनसान
धीमा झोंका हवा का एक सुरीली तान

सिंदूरी कालीन पर गुलमोहर शालीन
तन का हिंडोला डुले मन काहे गमगीन

ना रूठ यों गुलमोहर नहीं बिखर हवा संग
शृंगार हो मौसम का ओढ़ा दो लाल रंग

गरम थपेडे बह रहे गुलमोहर मुस्काए
हर मौसम में खुश रहो यही समझाए

दीपिका
जोशी 'संध्या'

1 comments:

नरेंद्र गोळे ने कहा…

वा! क्या बात है! कितनी अच्छी कविता. सुंदर.